माँ, मेरी माँ पांचवा दिन

बहुत भटके बहुत तड़पे,कुछ समझ ना आए यहाँ, द्वारे पहुचे हम उनके, जिन्हें भगवान कहते है यहाँ।।पीड़ा सुनाई उन्हें अपनी,हम नाराज उनसे थे यहाँ, अत्तित की गलतियां थी हमारी,पर दोषी उन्हें माने यहाँ।।बैठ गए जाकर मन्दिर में,वो देख रहे थे हमें वहाँ, मनमोहक मुस्कान थी उनकी,निहारे हमको इकटक वहाँ।। हाथ जुड़े थे शीश झुके थे,नतमस्तक थे हम वहाँ, सारा जहाँ हम हार चुके थे,अनाथ कहलाने लगे यहाँ।।आंखों आंखे मिल रही थी उनसे,हम उन्हें वो हमें देखे वहाँ, कुछ कहना चाहते थे वो हमसे,पर हम कुछ ना समझे वहाँ।। कारण छुपा था उसमें एक,हमारे भाव लुप्त होने लगे यहाँ,पहले लगाते थे ध्यान हम,अब ध्यान ना लगाते यहाँ।। शायद यही कहना चाहते थे,पुत्र ध्यान लगाओ आप यहाँ, ध्यानी को ही वही राह दिखे,सुगमता होती जिसमे यहाँ।।फिर जाएगे हम शाम को मन्दिर,कोशिश समझने की करेगे वहाँ, जो आदेश देगे मानेंगे उसको,आदेश मनसा की माता देगी वहाँ।।

harish harplani द्वारा प्रकाशित

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4 विचार “माँ, मेरी माँ पांचवा दिन&rdquo पर;

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